संवाद

वो संवाद थे दो संवाद
अंतर था 'भूतकाल और वर्तमानकाल' का !
दो सदियों और दो नदियों का

किन्तु विचार जो केन्द्रित थे एक ही 'प्रयाग' में !

वो संवाद जो भीड़ में इक चमकते कपडे की तरह था
जिसनें अत्याचार और पीड़ा को हरानें की कसम खायी थी , गाँव को बदलने की चरम पीड़ा पायी थी!
गणतंत्र को असल में पानें की शक्ल बनायीं थी!

दर्द था मुझमें कहीं गांवों के ख़त्म होते अस्तित्व को सोचकर,
पर अचानक ये मरहम मिल गया, इस संवाद का प्रेरणास्रोत-रस मैं पी गया!
गाँव वापस पा सकते हैं , प्रजातंत्र से नेतावों को हरा सकते हैं!

अंत में संवाद नें हुँकार फूंकी, वर्तमान की आँखें पल में खोली
अब फिर से दिया जलेगा, खिलखिलाती हरियाली होगी
दादी, दादा कहानी सुनायेंगे और चंदा मामा फिर से आयेंगे,
माँ की लोरियों से बच्चे सो जायेंगे ,
मिट्टी की सरकार चलेगी, मूक समाज दुबारा संवाद करेगा
वसुदेव कुटुम्बकम को साकार करेगा!

ये संवाद मुझे जीवित चाहिए -
रुपये की दोड़  कम और 'समाज' ज्यादा चाहिए!
ना ही अमेरिका और ना चीन चाहिए
अपनें भारतवर्ष की वही मानवता वाली घड़ी चाहिए
मुझे पता है ये संवाद मुझे बार बार सताएगा, 
लेकिन कभी ना हारने का हमेशा जज्बा दिलाएगा!

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