"बैठा हूँ मैं धूल मैं................"
बैठा हूँ मैं, धूल में
झांकता कचहरी के मूल में.
खड़ी चलती बूढी लाशें,
वक्त के चौखट में हैं सांसें.
पता नहीं कब वक़्त गुजरा,
कब लकीरें खिच गयी चेहरों पर.
ये लकीरें हैं सबक की,
ये लकीरें सब्र की, ये लकीरें है बताती तन के 'उनके' फक्र की.
तब क्यूँ चिल्लाते जोर-जोर हैं, कहते ये वकील साब नहीं चोर हैं.
वक़्त की रेखाओं का गहरा नाता है यहाँ, आदमी को खोजती उसकी 'मर्यादा' है जहाँ,
न जानें किस किस से टकरी होगी वो, किस किस से उसका पाला पड़ा होगा...सारा संसार प्रथम बार उसे यहीं मृत पड़ा मिला होगा.
आम रास्तों की तरह ही, खो गयी वो वो भीड़ में ,
दर दर भटकती रास्तों से, थक गयी वो सो गयी.
वो(मर्यादा) रोज़ - न्यायालय के चोखटों पर आज भी दिखती है मुझे,
फूट-फूट कर रोती है वो, और दस्तखत करती है वो.
उसके इस रोने में, खोने में और जीने में न जाने क्या दर्द छुपा हो -दिल के इक कोने में......
शायद शर्म से छुपा वो 'राम'(मर्यादापुरुषोत्तम) हो, जो स्वयं झिझकता कहने में कि -
"क्यूँ आम ज़िन्दगी को अंधकार भविष्य में ढो रहे हो, क्यूँ कलह कि दिनाकों को बढा कर सो रहे हो?
क्यूँ मानवता का भद्दा मजाक उड़ा रहे हो, क्यूँ माँ को बच्चे से दूर करते हो?
क्यूँ समय को तवजो नहीं देते हो ? , इन्साफ को विहीन कर देतो हो ,
आम आदमी को ज़िन्दगी हारना सीखा देते हो, मज़बूरी में चोर , गुंडा बना देतो हो, आखिर क्यूँ ?"
यह प्रश्न में आप सभी पर छोड़ता हूँ ,
भ्रष्ट- नीतियों का पर्चा अभी खोलता हूँ ----
बंद हो गयी है आँखें न्याय की,
समझ में आता तो सिर्फ नोटों की गड्डी की और चाय की .
चंद खुशियों का जीवन व्यतीत करने को , आदर्शों की बोली लगाकर केस व्यतीत करने को
भूल जाते हैं सब - हे निर्दय प्राणी!!!!
धन्य है तुझे और तेरी परिभाषाओं को,
गगनचुम्बी आशाओं को.
"कर मनन इस बात का कि तू भी आखिर मनुष्य है ,
जीवन का तू भी शिष्य है.
'जीवन का क़ानून' ही श्रेष्ट है ,
करो भला तभी स्वयं कल्याण है,
नहीं तो - तू वो अभागा जेल है, "जो कभी न फर्स्ट है नां फेल है" ..........................
प्रथम अध्याय सीख रहा था................जो व्यवस्था,अव्यवस्था
वहां मुझे दिखी वो मैंने इस कृत के द्वारा दिखाने की कोशिश की है .....)
सोच................
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