Posts

Showing posts from 2012

मानव कलम या औद्योगिकरण ??

Image
मानव कलम! मानव कलम ? फिर मानवता लिखनें में क्यूँ है विलम्ब ? ये वही हाथ है शायद जो  'सिर्फ कलम' ही नहीं  आम आदमी के सिकुड़े माथे को पढ़ता  था और हाथ में फेली  झूरियों को स्पष्ठ लिखता था ! ये वही हथेली है जो श्याही -'खून-पसीने' की  भरती थी मुरझे हुए नाजुक चेहरों में वो कलम- 'उमंग और आशा' रचती थी  और उम्मीदों का पुलिंदा बनकर "आजाद हिन्द फ़ोज" बनती थी! आवो चलो ढूँढते  हैं उस कलम को आज, जो इन्कलाब रस बनती थी  और राष्ट्र प्रेम के धागे में सबको पीरो के रखती थी ! इतिहास के पन्नों को देखो-तिलक नें थी हुंकार भरी 'केसरी-कलम' से अंग्रेजों की छाती में थी तलवार चुभी, 'घोष' नें भी इस कलम से अंग्रेजों की अमानवीय सोच का किया खंडन -  'हिंदी पेट्रियट' अखबार द्वारा रचित 'क्रांति' लाया- 'अंग्रेजो में घुटन'  इस कलम नें ही तो- धुएं उडाये अंग्रेजों के अरमानों के विवश कर दिया घुटनें बल वापस स्व वतन चलनें को ! जनता को इस कलम नें ही 'आयना' सा भरपूर विश्वास दिया और रोंगटे खड़े कर दिए दुश्मन के, भागनें पर उनको व

संवाद

Image
वो संवाद थे दो संवाद अंतर था 'भूतकाल और वर्तमानकाल' का ! दो सदियों और दो नदियों का किन्तु विचार जो केन्द्रित थे एक ही 'प्रयाग' में ! वो संवाद जो भीड़ में इक चमकते कपडे की तरह था जिसनें अत्याचार और पीड़ा को हरानें की कसम खायी थी , गाँव को बदलने की चरम पीड़ा पायी थी! गणतंत्र को असल में पानें की शक्ल बनायीं थी! दर्द था मुझमें कहीं गांवों के ख़त्म होते अस्तित्व को सोचकर, पर अचानक ये मरहम मिल गया, इस संवाद का प्रेरणास्रोत-रस मैं पी गया! गाँव वापस पा सकते हैं , प्रजातंत्र से नेतावों को हरा सकते हैं! अंत में संवाद नें हुँकार फूंकी, वर्तमान की आँखें पल में खोली अब फिर से दिया जलेगा, खिलखिलाती हरियाली होगी दादी, दादा कहानी सुनायेंगे और चंदा मामा फिर से आयेंगे, माँ की लोरियों से बच्चे सो जायेंगे , मिट्टी की सरकार चलेगी, मूक समाज दुबारा संवाद करेगा वसुदेव कुटुम्बकम को साकार करेगा! ये संवाद मुझे जीवित चाहिए - रुपये की दोड़  कम और 'समाज' ज्यादा चाहिए! ना ही अमेरिका और ना चीन चाहिए अपनें भारतवर्ष की वही मानवता वाली घड़ी चाहिए मुझे पता है ये संवाद मु
Image
      "प्रथम सांस थी वो जब माँ तेरी मीठी आवाज़ से इक उन्मुक्त हवा आई थी और तूनें ज़िन्दगी दे दी मुझे मेरी माँ मैं तो सिर्फ इक माँस का गोला था पर तूनें ही तो उसमें जान फूंकी माँ ओ मेरी माँ! तेरी वो भरी आँखें अभी भी मेरी आँखों में है माँ, जब मैंने कर्म के लिए घर छोड़ा था, वो सिमटी थी कहीं माथे के बीचों -बीच और बिंदी के बीच तूनें कहीं दबा के रख दी थी! जब मैं चला गया सुना था मैंने सबसे कि तू रोई थी, मेरी परछाई में सोयी थी! मैं भी ढूंड रहा था माँ तुझे वहां अपनें पास और तेरा आँचल खोज रहा था ! पर हाँ तेरा इक कपडे का टुकड़ा मैं अपनें साथ लाया था, उसको हर रात अपनें आन्सुवों से सीचता था, कभी उसे अपनें करीब रख कर आँखें मिचता था और उसे तेरा  स्पर्श है सोच कर ही सोता था!!! अब भी माँ हूँ मैं तुझसे दूर पर अब समझ आया कि तू तो ह्रदय में है मेरे, वो कपडा किस काम का ??? सांस तो तू है मेरी, मेरी माँ तू ही तो है सब कुछ हमेशा के लिए जो ह्रदय में बसा है इक स्पर्श, इक खुशबु के रूप में !!!!!!!