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Law is for people or lawyers?

I remember that during our Graduation time, in the last semester we used to have legal aid and awareness paper. In this paper, we were to make common person understand law. I was given responsibility of dealing with RTI(Right to Information). That day i was quite nervous as how to make it very simple. As usual i wrote a note on RTI but was pondering on   how to really make it usable for a villager who is doing agriculture wor or doing manual work at home in mountain areas of Tehri. The time clicked and finally i presented the paper but was unable to really do what i was thinking about.  From that day i still had some questions in mind: 1. Law is for people's welfare and good  as Bentham said law is for maximizing good and happiness in the society(see, http://www.utilitarianphilosophy.com/jeremybentham.eng.html) But WHY LAW IS ALWAYS GIVEN LAST PRIORITY? 2. WHY LAW IS NEVER EASY FOR A COMMON PERSON? 3. WHY LAW IS WRITTEN IN SUCH A WAY TO NEVER LET A COMMON PERSON APPROACH IT

U know who am I?

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When I stand in the buses then only U have opportunity to sit in your luxurious cars I sacrifice my whole life in slums and under trees then only U live in your those so     called high class homes, when i burn my sweat   then only U relax under the AC , when i am awaken whole night then only Ur nights are pleasant and safe....Ur most dirty in this world...because if i wouldn't have cleaned your excreta then who would have cleaned it ! U ?   I am always what i am, i don't change i sustain on the minimum of life but still U have reasons to hate me and blame me ! I am the LABOUR: i firstly laid base-brick of your house then why U make us marginalized? I am Ur housekeeper:   but U still want me to live in slums ! I am Ur Watchman: but have U thought of my home's social security? I am Ur Cook: but u never served the joy of life! I am Ur house cleaner: but still U don't clean the dust of my life! I am Ur Painter: but still U bargain with my

मानव कलम या औद्योगिकरण ??

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मानव कलम! मानव कलम ? फिर मानवता लिखनें में क्यूँ है विलम्ब ? ये वही हाथ है शायद जो  'सिर्फ कलम' ही नहीं  आम आदमी के सिकुड़े माथे को पढ़ता  था और हाथ में फेली  झूरियों को स्पष्ठ लिखता था ! ये वही हथेली है जो श्याही -'खून-पसीने' की  भरती थी मुरझे हुए नाजुक चेहरों में वो कलम- 'उमंग और आशा' रचती थी  और उम्मीदों का पुलिंदा बनकर "आजाद हिन्द फ़ोज" बनती थी! आवो चलो ढूँढते  हैं उस कलम को आज, जो इन्कलाब रस बनती थी  और राष्ट्र प्रेम के धागे में सबको पीरो के रखती थी ! इतिहास के पन्नों को देखो-तिलक नें थी हुंकार भरी 'केसरी-कलम' से अंग्रेजों की छाती में थी तलवार चुभी, 'घोष' नें भी इस कलम से अंग्रेजों की अमानवीय सोच का किया खंडन -  'हिंदी पेट्रियट' अखबार द्वारा रचित 'क्रांति' लाया- 'अंग्रेजो में घुटन'  इस कलम नें ही तो- धुएं उडाये अंग्रेजों के अरमानों के विवश कर दिया घुटनें बल वापस स्व वतन चलनें को ! जनता को इस कलम नें ही 'आयना' सा भरपूर विश्वास दिया और रोंगटे खड़े कर दिए दुश्मन के, भागनें पर उनको व

संवाद

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वो संवाद थे दो संवाद अंतर था 'भूतकाल और वर्तमानकाल' का ! दो सदियों और दो नदियों का किन्तु विचार जो केन्द्रित थे एक ही 'प्रयाग' में ! वो संवाद जो भीड़ में इक चमकते कपडे की तरह था जिसनें अत्याचार और पीड़ा को हरानें की कसम खायी थी , गाँव को बदलने की चरम पीड़ा पायी थी! गणतंत्र को असल में पानें की शक्ल बनायीं थी! दर्द था मुझमें कहीं गांवों के ख़त्म होते अस्तित्व को सोचकर, पर अचानक ये मरहम मिल गया, इस संवाद का प्रेरणास्रोत-रस मैं पी गया! गाँव वापस पा सकते हैं , प्रजातंत्र से नेतावों को हरा सकते हैं! अंत में संवाद नें हुँकार फूंकी, वर्तमान की आँखें पल में खोली अब फिर से दिया जलेगा, खिलखिलाती हरियाली होगी दादी, दादा कहानी सुनायेंगे और चंदा मामा फिर से आयेंगे, माँ की लोरियों से बच्चे सो जायेंगे , मिट्टी की सरकार चलेगी, मूक समाज दुबारा संवाद करेगा वसुदेव कुटुम्बकम को साकार करेगा! ये संवाद मुझे जीवित चाहिए - रुपये की दोड़  कम और 'समाज' ज्यादा चाहिए! ना ही अमेरिका और ना चीन चाहिए अपनें भारतवर्ष की वही मानवता वाली घड़ी चाहिए मुझे पता है ये संवाद मु
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      "प्रथम सांस थी वो जब माँ तेरी मीठी आवाज़ से इक उन्मुक्त हवा आई थी और तूनें ज़िन्दगी दे दी मुझे मेरी माँ मैं तो सिर्फ इक माँस का गोला था पर तूनें ही तो उसमें जान फूंकी माँ ओ मेरी माँ! तेरी वो भरी आँखें अभी भी मेरी आँखों में है माँ, जब मैंने कर्म के लिए घर छोड़ा था, वो सिमटी थी कहीं माथे के बीचों -बीच और बिंदी के बीच तूनें कहीं दबा के रख दी थी! जब मैं चला गया सुना था मैंने सबसे कि तू रोई थी, मेरी परछाई में सोयी थी! मैं भी ढूंड रहा था माँ तुझे वहां अपनें पास और तेरा आँचल खोज रहा था ! पर हाँ तेरा इक कपडे का टुकड़ा मैं अपनें साथ लाया था, उसको हर रात अपनें आन्सुवों से सीचता था, कभी उसे अपनें करीब रख कर आँखें मिचता था और उसे तेरा  स्पर्श है सोच कर ही सोता था!!! अब भी माँ हूँ मैं तुझसे दूर पर अब समझ आया कि तू तो ह्रदय में है मेरे, वो कपडा किस काम का ??? सांस तो तू है मेरी, मेरी माँ तू ही तो है सब कुछ हमेशा के लिए जो ह्रदय में बसा है इक स्पर्श, इक खुशबु के रूप में !!!!!!!

कहते हैं इतिहास पुनरावृति करता है .........

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नंगे पाँव कहीं !!!!!!

                                           "नंगे पाँव कहीं !!!!!!" "नंगे पाँव बैठे हैं कहीं वो, मन को छुपाये दिल को दबाये, इक टकटकी लगाए..... कोई आएगा शायद ! डरे मन पर प्यार का मरहम लगानें  कोई आएगा शायद ! वो मरा बचपन जगानें  इन्द्रधनुषिया रंग बिखराए, डरी साँसों को  आज़ादी का एहसास दिलाये........आएगा शायद   !!!!!!     " पलकें ऐसी बोझिल तो नां थी, जब आया था संसार में, रोया था तब मैं मगर ,उसमें कुछ अलग ही आजादी थी.... मन तड़पता है अब कि.. कैसे रोवुं खुल के अब, कैसे सोवूं मस्त झपकी ले कर,  अब तो माँ सा हाथ भी बालों को फुसलाता नहीं, और मन मेरा सोना चाहता नहीं............... क्या करू अब .................आएगा शायद कोई दबे पाँव और मुझे अपना कहेगा...              "अपनाए नां मुझे मगर   कम से कम छणिक  प्यार तो करेगा !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!" आएगा शायद ................... कूड़ा उठा रहा था ....तभी दो मेरे जैसे ही दिखे... इक लड़की भाई !भाई! कहकर बुला रही थी  सोचा ये क्या होता है !! वो लड़ते कभी , इक दुसरे कि बातों में ब