"कैक्टस के पौध में इक पीला फूल खिल आया"
उड़ रहा था इक डगर पर
अपनी सोच की उड़ान लेकर ..
नां किसी से था पूछता ,
नां किसी के कहने पर सोचता
बस 'मैं और मेरी सोच' के दो परों पर ही मैं सांस भरता .
पर इक अचानक दिन वो आया
जब सहारा के एक कैक्टस के पौध में इक पीला फूल खिल आया ,
उसमें दिखा कुछ मेरा अपना साया.
न जाने क्यूँ दूरदर्शी आँखों पर मैंने अपना भरोसा जताया
खेतों और बागों को छोड़ उस सहारा के पौध को सीचनें चला आया
एक अपना सा जो लगा मुझे .... वो शायद बनेगा मेरा हमसाया .
वक़्त नें कुछ काटों से घाव दिए , और कुछ रेतीले आंधी रूपी समय नें
जो उसकी साँसों को ले गया और मैं रह गया उसकी उन्मुक्त यादों में
मैं रह गया उसकी यादों में , साँसों में
जो दर्द सा दे रही थी कहीं दिल कि राहों में
अंत में, मैं भी उस कंटीली ज़िन्दगी में फँस गया हूँ
अपने दो पंखों को कहीं छोड़ गया हूँ
आदमी के बनाए तारों में तर गया हूँ
बस याद करता हूँ उस ज़िन्दगी को जिसमें मेरे वो "अपने पंख" थे
जीवन के युद्ध में 'शुरुवात' और 'अंत' थे
आशा करता हूँ अब मैं "मेरे पर मुझे मिलेंगे , कुछ समय तो लगेगा पर वो मेरे छणिक दुःख को भर लेंगे."
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