"बैठा हूँ मैं धूल मैं................"
बैठा हूँ मैं, धूल में झांकता कचहरी के मूल में. खड़ी चलती बूढी लाशें, वक्त के चौखट में हैं सांसें. पता नहीं कब वक़्त गुजरा, कब लकीरें खिच गयी चेहरों पर. ये लकीरें हैं सबक की, ये लकीरें सब्र की, ये लकीरें है बताती तन के 'उनके' फक्र की. तब क्यूँ चिल्लाते जोर-जोर हैं, कहते ये वकील साब नहीं चोर हैं. वक़्त की रेखाओं का गहरा नाता है यहाँ, आदमी को खोजती उसकी 'मर्यादा' है जहाँ, न जानें किस किस से टकरी होगी वो, किस किस से उसका पाला पड़ा होगा...सारा संसार प्रथम बार उसे यहीं मृत पड़ा मिला होगा. आम रास्तों की तरह ही, खो गयी वो वो भीड़ में , दर दर भटकती रास्तों से, थक गयी वो सो गयी. वो(मर्यादा) रोज़ - न्यायालय के चोखटों पर आज भी दिखती है मुझे, फूट-फूट कर रोती है वो, और दस्तखत करती है वो. उसके इस रोने में, खोने में और जीने में न जाने क्या दर्द छुपा हो -दिल के इक कोने में...... शायद शर्म से छुपा वो 'राम'(मर्यादापुरुषोत्तम) हो, जो स्वयं झिझकता कहने में कि - "क्यूँ आम ज़िन्दगी को अंधकार भविष्य में ढो रहे...